4 नास्तिक -चार्वाक ऋषि --
जगत सत्यम ब्रह्म मिथ्या!!
नास्तिक दर्शन भारतीय दर्शन परम्परा में उन दर्शनों को कहा जाता है जो वेदों को नहीं मानते थे। भारत में भी कुछ ऐसे व्यक्तियों ने जन्म लिया जो वैदिक परम्परा के बन्धन को नहीं मानते थे वे नास्तिक कहलाये तथा दूसरे जो वेद को प्रमाण मानकर उसी के आधार पर अपने विचार आगे बढ़ाते थे वे आस्तिक कहे गये। नास्तिक कहे जाने वाले विचारकों की तीन धारायें मानी गयी हैं - चार्वाक, जैन तथा बौद्ध। .
चार्वाक दर्शन एक भौतिकवादी नास्तिक दर्शन है। यह मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है तथा पारलौकिक सत्ताओं को यह सिद्धांत स्वीकार नहीं करता है। यह दर्शन वेदबाह्य भी कहा जाता है। वेदबाह्य दर्शन छ: हैं- चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक, और आर्हत। इन सभी में वेद से असम्मत सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। चार्वाक प्राचीन भारत के एक अनीश्वरवादी और नास्तिक तार्किक थे। ये नास्तिक मत के प्रवर्तक बृहस्पति के शिष्य माने जाते हैं। बृहस्पति और चार्वाक कब हुए इसका कुछ भी पता नहीं है। बृहस्पति को चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र ग्रन्थ में अर्थशास्त्र का एक प्रधान आचार्य माना है। .
चार्वाक संभवत: इस दुनिया के पहले ऐसे ऋषि थे, जिन्होंने खुले तौर पर वेदों, वैदिक ऋषियों और वैदिक कर्मकांड को चुनौती दी. वे नास्तिक थे.
चार्वाक ऐसे टेंपरामेंट में विश्वास रखते थे, जिसे आजकल रेशनलिज्म कहा जाता है.
चार्वाक का पूरा दर्शन इस बात पर टिका है कि खाओ, पियो और ऐश करो. भले इसके लिए आपको कर्ज भी क्यों न लेना पड़े. आप चिंता मत करो, क्योंकि एक बार मृत्यु हो जाने पर यह देह फिर जन्म लेने नहीं आने वाली. इसलिए कुंठाओं से चिंताओं से मुक्त जीवन जियो.
चार्वाक के जो संस्कृत श्लोक आजकल मिलते हैं, वे या तो महाभारत से या फिर जैन और बौद्ध दर्शन ग्रंथों से मिलते हैं.
चार्वाक का दर्शन बहुत लोकप्रिय भी हुआ, लेकिन बौद्धों, जैनों और अद्वैतवादी दर्शन के उभार के बाद चार्वाक को पूरी तरह भुला दिया गया.
न तो ऋषि चार्वाक के बारे में कोई सटीक जानकारी मिलती है और न ही उनका दर्शन ही पूरी तरह कहीं उपलब्ध है. यह तय है कि चार्वाक वेदों के बाद और बौद्धों-जैनों से पहले हुए. वेदों की वे आलोचना करते हैं और बौद्धों तथा जैनों के दर्शन में चार्वाक का जिक्र है.
चार्वाक के जो संस्कृत श्लोक आजकल मिलते हैं, वे या तो महाभारत से या फिर जैन और बौद्ध दर्शन ग्रंथों से मिलते हैं.
स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी उनके काफी श्लोक अपने ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश में उद्धृत किए थे.
चार्वाक, वृहस्पति और लोकायत
चार्वाक ने कहा कि वेद धूर्त लोगों ने लिखे हैं और उन्हें मानने का कोई मतलब नहीं है.
चार्वाक को लोकायत कहा जाता है. कुछ जगह उनका नाम वृहस्पति भी बताया जाता है.
कई विद्वान् कहते हैं कि चार्वाक पहले हुए. वृहस्पति उनको लोकप्रिय बनाने वाले एक और दार्शनिक थे, जो चार्वाक पंथ को मानते थे और वृहस्पति ने ही चार्वाक दर्शन को लोगों के बीच पहुंचाया.
इनका कहना था: जो कुछ भी है, इस जीवन में है, इसी धरती पर है.
चार्वाक पूरी तरह भौतिकवादी थे. आप उनके दर्शन को समझकर कह सकते हैं कि वे आर्ट ऑव जॉयफुल लिविंग के जनक थे. उनका कहना था कि जो सुख का त्याग करते हैं, वे मूर्ख हैं. उनका कहना था कि जैसे किसान गेहूं से भूसे को अलग करके गेहूं रख लेते हैं और भूसे को छोड़ देते हैं, वैसे ही इंसान को सुख को ग्रहण करना चाहिए और दुख को छोड़ देना चाहिए.
चार्वाक ने कहा : वेद धूर्त लोगों ने लिखे हैं
चार्वाक ने कहा कि वेद धूर्त लोगों ने लिखे हैं और उन्हें मानने का कोई मतलब नहीं है. वेदों के ऋषि सुख को छोड़ने और दु:ख को गले लगाने को कहते हैं. यह गलत है. आप सुख को गले लगाओ और दु:ख से किनारा कर लो. दु:ख को लगे लगाने की बात कहने वाले पूरी तरह आपके जीवन को बर्बाद कर देंगे.
जो कुछ भी है वह यही लोक है, परलोक-वरलोक कुछ नहीं है
चार्वाक ने कहा कि कुछ मूर्ख लोग इस धरती के सुख को छोड़कर परलोक में जाकर सुख हासिल करने की कामना लेकर पूजा-पाठ, अग्निहोत्र, यज्ञ, कर्म, उपासना आदि सब करते हैं. ऐसा करके ये लोग अपने अज्ञान का प्रदर्शन करते हैं.
जब परलोक है ही नहीं और सिर्फ लोक ही है तो लोक के सुख की उपेक्षा करके अगले जन्म में सुख मिलने की उम्मीद करना तो मूर्खता ही है.
चार्वाक केवल प्रत्यक्षवादिता का समर्थन करता है, वह अनुमान आदि प्रमाणों को नहीं मानता है। उसके मत से पृथ्वी जल तेज और वायु ये चार ही तत्व है, जिनसे सब कुछ बना है। उसके मत में आकाश तत्व की स्थिति नहीं है, इन्ही चारों तत्वों के मेल से यह देह बनी है, इनके विशेष प्रकार के संयोजन मात्र से देह में चैतन्य उत्पन्न हो जाता है, जिसको लोग आत्मा कहते है। शरीर जब विनष्ट हो जाता है, तो चैतन्य भी खत्म हो जाता है देहात्मवाद। इस प्रकार से जीव इन भूतो से उत्पन्न होकर इन्ही भूतो के नष्ट होते ही समाप्त हो जाता है, आगे पीछे इसका कोई महत्व नहीं है। इसलिये जो चेतन में देह दिखाई देती है वही आत्मा का रूप है, देह से अतिरिक्त आत्मा होने का कोई प्रमाण ही नहीं मिलता है। चार्वाक के मत से स्त्री पुत्र और अपने कुटुम्बियों से मिलने और उनके द्वारा दिये जाने वाले सुख ही सुख कहलाते है। उनका आलिन्गन करना ही पुरुषार्थ है, संसार में खाना पीना और सुख से रहना चाहिये। इस दर्शन में कहा गया है, कि:-
यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
अर्थ है कि जब तक जीना चाहिये सुख से जीना चाहिये, अगर अपने पास साधन नहीं है, तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिये, शमशान में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है?
चार्वाक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु ये चार ही तत्त्व सृष्टि के मूल कारण हैं। जिस प्रकार बौद्ध उसी प्रकार चार्वाक का भी मत है कि आकाश नामक कोई तत्त्व नहीं है। यह शून्य मात्र है। अपनी आणविक अवस्था से स्थूल अवस्था में आने पर उपर्युक्त चार तत्त्व ही बाह्य जगत, इन्द्रिय अथवा देह के रूप में दृष्ट होते हैं। आकाश की वस्त्वात्मक सत्ता न मानने के पीछे इनकी प्रमाण व्यवस्था कारण है। जिस प्रकार हम गन्ध, रस, रूप और स्पर्श का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए उनके समवायियों का भी तत्तत इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष करते हैं।
आत्मा-
चार्वाकों के अनुसार चार महाभूतों से अतिरिक्त आत्मा नामक कोई अन्य पदार्थ नहीं है। चैतन्य आत्मा का गुण है। चूँकि आत्मा नामक कोई वस्तु है ही नहीं अत: चैतन्य शरीर का ही गुण या धर्म सिद्ध होता है। अर्थात यह शरीर ही आत्मा है। इसकी सिद्धि के तीन प्रकार है- तर्क, अनुभव और आयुर्वेद शास्त्र।
तर्क से आत्मा की सिद्धि के लिये चार्वाक लोग कहते हैं कि शरीर के रहने पर चैतन्य रहता है और शरीर के न रहने पर चैतन्य नहीं रहता। इस अन्वय व्यतिरेक से शरीर ही चैतन्य का आधार अर्थात आत्मा सिद्ध होता है।
अनुभव 'मैं स्थूल हूँ', 'मैं दुर्बल हूँ', 'मैं गोरा हूँ', 'मैं निष्क्रिय हूँ' इत्यादि अनुभव हमें पग-पग पर होता है। स्थूलता दुर्बलता इत्यादि शरीर के धर्म हैं और 'मैं' भी वही है। अत: शरीर ही आत्मा है।
आयुर्वेद जिस प्रकार गुड, जौ, महुआ आदि को मिला देने से काल क्रम के अनुसार उस मिश्रण में मदशक्त उत्पन्न होती है, अथवा पान, कत्था, सुपारी और चूना में लाल रंग न रहने पर भी उनके मिश्रण से मुँह में लालिमा उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार चतुर्भूतों के विशिष्ट सम्मिश्रण से चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। ईश्वर-न्याय आदि शास्त्रों में ईश्वर की सिद्धि अनुमान या आप्त वचन से की जाती है। चूँकि चार्वाक प्रत्यक्ष और केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है अत: उसके मत में प्रत्यक्ष दृश्यमान राजा ही ईश्वर हैं वह अपने राज्य का तथा उसमें रहने वाली प्रजा का नियन्ता होता है। अत: उसे ही ईश्वर मानना चाहिये।
ज्ञान
प्रमेय अर्थात विषय का यथार्थ ज्ञान अर्थात प्रमा के लिये प्रमाण की आवश्यकता होती है। चार्वाक लोक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। विषय तथा इन्द्रिय के सन्निकार्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। हमारी इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ने वाला संसार ही प्रमेय है। इसके अतिरिक्त अन्य पदार्थ असत है। आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा के द्वारा रूप शब्द गन्ध रस एवं स्पर्श का प्रत्यक्ष हम सबको होता है। जो वस्तु अनुभवगम्य नहीं होती उसके लिये किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं होती। बौद्ध, जैन नामक अवैदिक दर्शन तथा न्यायवैशेषिक आदि अर्द्धवैदिक दर्शन अनुमान को भी प्रमाण मानते हैं। उनका कहना है कि समस्त प्रमेय पदार्थों की सत्ता केवल प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं की जा सकती। परन्तु चार्वाक का कथन है कि अनुमान से केवल सम्भावना पैदा की जा सकती है। निश्चयात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष से ही होता हैं। दूरस्थ हरे भरे वृक्षों को देखकर वहाँ पक्षियों का कोलाहल सुनकर, उधर से आने वाली हवा के ठण्डे झोके से हम वहाँ पानी की सम्भावना मानते हैं। जल की उपलब्धि वहाँ जाकर प्रत्यक्ष देखने से ही निश्चित होती है। अत: सम्भावना उत्पन्न करने तथा लोकव्यवहार चलाने के लिये अनुमान आवश्यक होता है किन्तु वह प्रमाण नहीं हो सकता। जिस व्याप्ति के आधार पर अनुमान प्रमाण की सत्ता मानी जाती है वह व्याप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। धूप के साथ अग्नि का, पुष्प के साथ गन्ध का होना स्वभाव है। सुख और धर्म का दु:ख और अधर्म का कार्यकारण भाव स्वाभाविक है। जैसे कोकिल के शब्द में मधुरता तथा कौवे के शब्द में कर्कशता स्वाभाविक है उसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये। जहाँ तक शब्द प्रमाण की बात है तो वह तो एक प्रकार से प्रत्यक्ष प्रमाण ही है। आप्त पुरुष के वचन हमको प्रत्यक्ष सुनायी देते हैं। उनको सुनने से अर्थ ज्ञान होता है। यह प्रत्यक्ष ही है। जहाँ तक वेदों का प्रश्न है उनके वाक्य अदृष्ट और अश्रुतपूर्ण विषयों का वर्णन करते हैं अत: उनकी विश्वसनीयता सन्दिग्ध है। साथ ही अधर्म आदि में अश्वलिंगग्रहण सदृश लज्जास्पद एवं मांसभक्षण सदृश घृणास्पद कार्य करने से तथा जर्भरी तुर्फरी आदि अर्थहीन शब्दों का प्रयोग करने से वेद अपनी अप्रामाणिकता स्वयं सिद्ध करते हैं।
आचार
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि चार्वाक लोग इस प्रत्यक्ष दृश्यमान देह और जगत के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार नहीं करते। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक पुरुषार्थचतुष्टय को वे लोग पुरुष अर्थात मनुष्य देह के लिये उपयोगी मानते हैं।
बहुत सुंदर तरीकेसे चार्वाक विचारधारा रखी है। धन्यवाद जी।
ReplyDeleteसत्य की जय होsss👍